Friday, February 15, 2008

रात के सवा नौ बज रहे हैं। अमरीकी देशभक्ति का बिगुल आई मैक से होता हुआ मेरे कानो को सहला रहा है। महेश के जिद थी की कोई एक्शन फ़िल्म देखनी है। विकल्पों की कमी के चलते मैंने "Enemy at the gates" चलाना ठीक समझा। मानता हूँ की उसमे कुछ वयस्क सीन है, पर अपना महेश सिर्फ़ शादीशुदा ही नही बल्कि दफ्तर में दूसरा सबसे बुजुर्ग व्यक्ति है।
आज का काम निपट गया। आज ही दोपहर को मंदाकिनी से बात हुई थी। बातो बातों में ब्लौग का विषय आया, और तभी मैंने ठान ली की आज या तो इस पार या उस पार। तो लीजिये जनाब, हम हाजिर हैं अपने हिम्मत और किस्मत आजमाने।
इस वख्त एक लेखक की दुविधा मैं पूर्णतः समझ सकता हूँ। क्या लिखुँ? कौन पढेगा? किसे पड़ी है? इन सवालों का कोई जवाब नही है, सिर्फ़ एक ही दिलासा है -- कोई तो होगा।
कई साल हो गए हिन्दी लिखे हुए। वह तों तकनिकी बढ़त और सुविधाओं का खेल है जो आज रोमन हिन्दी की आसानी और देवनागरी की सुन्दरता एक प्रोग्राम में समा गई है। कमाल है।
कभी सोचा नही था की यह इतना आसान हो पाएगा। स्व रघुनाथ जोशी जी ने अपना सारा जीवन इसी क्षेत्र को अर्पण कर दिया।
विस्तार से बताऊंगा, किंतु अभी महेश जाने के मूड में है। मेरे पास दफ्तर की चाबी नही है।